बदलते समय के साथ तकनीकों का उदय।
पैसो और मुद्राओं का लेन-देन अगर दिमाग में आता है तो इसके लिए सबसे जरूरी चीज होती है एक बैंक। और अगर बैंक की बात आती है तो सरकारी बैंक बनाम निजी बैंक का भी सवाल उठता हैं।
बैंक इसलिए बनाए गए ताकि जनता को अपने पैसे रखने में, पैसों के लेनदेन में सुविधा हो सके। बदलते समय के अनुसार लगातार नई तकनीके ईजाद की जा रही है ताकि इस पूरी प्रक्रिया को और आसान बनाया जा सके।
इसलिए आपने देखा होगा कि श्री नरेंद्र मोदी जी के प्रधानमंत्री बनने के बाद डिजिटल इंडिया से लेकर न जाने कितने ऐसे कार्यक्रम शुरू किए गए जिसमें तकनीकी सहायता के जरिए काम में देरी, चीजों को सिंपल और प्रक्रिया को बेहतर बनाया जा सके।
अगर आज के समय को हम पिछले दशकों से तुलना करें तो हम पाएंगे कि पहले ऐसी सुविधा नहीं थी जहाँ चंद मिनटों में मात्र मोबाइल के जरिये दूर किसी को पैसे पहुँच जाए।
बदलते समय के साथ बैंकिंग प्रक्रिया में बहुत ज्यादा बदलाव आया है और इससे जनता को फायदा ही हुआ है।
आज हर व्यक्ति UPI का प्रयोग कर रहा है। अगर उसके पास कैश नहीं है तो वह बड़ी आसानी से फ़ोन से ट्रांजैक्शन को पूरा कर सकता है।
निश्चित ही जो सुविधा आज हमें प्राप्त हो रही है पूर्व में ऐसी सुविधाएं हमारे बुजुर्गों और पूर्वजों को नहीं मिली।
कुछ जटिल प्रक्रियाओं को आसान बनाना जरूरी है।
मगर भारत को हम एक विश्व गुरु बनाने के उद्देश्य के साथ काम कर रहे हैं इसलिए इतनी सुविधा होने के बावजूद भी भारत की जमीनी स्थिति कुछ खास ठीक समझ नहीं आती।
यहां कुछ ठीक है तो सिर्फ उस व्यक्ति के लिए जिसके पास अपार संपत्ति हो और जो राजनीतिक रूप से बहुत सशक्त हो। इसके अलावा भारत की बड़ी आबादी को न जाने कितनी ही समस्याओं का सामना हर रोज करना पड़ता है। खैर, यह बात और है कि भारतीयों को अब यह समस्याएं, समस्याएं लगते ही नहीं है।
पर अगर जनता ने मजबूरी में ही सही अगर सिस्टम के अंदर कुछ खराब कार्यप्रणाली को अपना लिया है तो इसका मतलब यह नहीं है कि उस खराबी को ठीक करने की सरकार की जिम्मेदारी खत्म हो जाती है।
इसी प्रकार कुछ छोटी-छोटी चीजें जिन्हें बड़ी आसानी से बदला जा सकता था न जाने क्यों वह अभी तक बदली नहीं गई है।
ऊपर से बहुत सारे ऐसे विषय हैं जिनके बारे में आम जनता को अच्छी जानकारी होनी चाहिए पर लोग उनका नाम सुनकर ही डर जाते है। जैसे Income Tax Return, GST Return, इत्यादि।
यह चीज ऐसी नहीं है जिससे डरा जाए। इन चीजों की जानकारी हर व्यक्ति को होनी चाहिए मगर लगातार बदलाव के बाद भी सिस्टम अभी भी इतना जटिल है कि एक नया आदमी बहुत बुरे तरीके से यहां जाकर फंस जाता है।
फिर व्यक्ति को यह चीजे समझ नही आती और फिर उसे किसी एक्सपर्ट का ही इसमें सहारा लेना पड़ता है।
खैर, आज का विषय यह नहीं है। आज का विषय बैंकिंग से जुड़ा हुआ है।
सरकारी बैंक बनाम निजी बैंक
आप का किसी न किसी बैंक में खाता होगा। वह सरकारी बैंक हो सकता है या वह निजी क्षेत्र का कोई बैंक हो सकता है। यह दो तरह के बैंक जनता को अपनी सेवा देते हैं मगर दोनों तरह के बैंकों में आपको जमीन-आसमान का अंतर मिल जाएगा। यही से सरकारी बैंक बनाम निजी बैंक की तुलना शुरू हो जाती हैं।
आप किसी सरकारी बैंक में अकाउंट खुलवाने जाएंगे तो सबसे पहले वहां का सरकारी बाबू आपको 15 पन्नों का बड़ा सा सरकारी फॉर्म देगा। इस फॉर्म में कई सारी चीजें ऐसी होगी जो ना अंग्रेजी में ना ही हिंदी में पढ़कर समझ आएगी।
तो आप उन्हें खाली छोड़ देंगे यह सोचकर कि बैंक का कोई कर्मचारी आपकी अच्छे से मदद करेगा।
इस फार्म के साथ आपको दर्जनों भर की फोटो कॉपी भी जमा करने को कहा जाएगा। बावजूद इसके कि फॉर्म में आपको आधार नंबर और पैन कार्ड नंबर डालना ही है। फिर भी आपको फोटोकॉपी जमा करना अनिवार्य होता है।
इसके साथ आपको एक हाल की खिंचवाई हुई फोटो भी जमा करना होगा क्योंकि पुरानी फ़ोटो मान्य नही रहती।
जैसे-तैसे फॉर्म को आप थोड़ा भर लेंगे और इस पूरे कागज के गट्टे को लेकर बैंक पहुचेंगे। अगर बैंक का अधिकारी पहली बार में ही आपके फॉर्म को स्वीकार कर लेता है तो मान जाइए कि आप बड़े किस्मत वाले लोगों में से एक हैं जिनके फॉर्म को उसने पहली बार में ही स्वीकार कर लिया।
जिनके फॉर्म को उसने पहली बार में स्वीकार न किया हो तो इस बात की संभावना बहुत ज्यादा होती है कि वह फॉर्म में कोई गलती निकाल दे।
जैसे ‘नॉमिनी का नाम तो लिख दिया पर साइन भी करवा लेते।’, ‘साइन किया है तो आधार कार्ड का नंबर लिख देते’ या फॉर्म में ऐसी कोई चीज जो आपने छोड़ दिया उसके बारे में आपको बोल सकता है। हालांकि फॉर्म देते समय उसने आपको यह सारी चीजों की जानकारी बिल्कुल नहीं दी थी।
15-20 पन्नों का फॉर्म लेकर आप जब काउंटर में खड़े होते हैं, आसपास भीड़ होती है, तो समय होता ही नहीं है कि काउंटर से कुछ जानकारी ले सके। ऊपर से सरकारी कर्मचारियों का रवैया तो किसी से छुपा है ही नही।
इसके बाद आप वापस घर आएंगे फिर अपनी गलतियों को सुधार के वापस बैंक जाएंगे तो बैंक कर्मचारी आपको यह बताएगा कि जो फोटोकॉपी आपने लगाई है वह ज्यादा काली हो गई है या छोटी है।
फिर आप फोटोकॉपी की दुकान में जाएंगे दोबारा फोटो कॉपी करेंगे फिर उसे जमा करेंगे। हालांकि बैंक द्वारा जो फॉर्म दिए जाते हैं उनमें ही अगर आप कागजों की फोटो कॉपी को देखेंगे तो उनका स्तर जो आप फोटो कॉपी करा कर लाये थे उससे भी कई नीचे होता है मगर आप सवाल खड़ा नहीं कर सकते।
पर अगर आप यही खाता किसी निजी बैंक में खुलवाने जाएंगे तो आपको वहां जाना भी नहीं पड़ेगा। वहीं का एक रिप्रेजेंटेटिव आपके पास आ जाएगा। आपसे सिर्फ आपके आधार कार्ड का नंबर, पैन कार्ड का नंबर लेगा और कुछ जानकारी लेकर चंद मिनट में बिना किसी अतिरिक्त फोटोकॉपी के, बिना किसी फोटोग्राफ के, वहीं पर लाइव आपका फोटो खींचकर, बिना किसी बहाने के, अच्छे व्यवहार के साथ आपका 15 से 20 मिनट में अकाउंट खोल करके चला जाएगा।
सवाल यह उठता है कि जब निजी क्षेत्र के बैंक यह करने में सफल है तो सरकारी बैंकों को क्या दिक्कत आ रही है?
यह मान लिया जाए कि सरकारी बैंक के अधिकारी जगह-जगह जाकर अकाउंट नहीं खोल सकते मगर जो व्यक्ति बैंक पहुंच के अकाउंट खुलवाना चाह रहा है उसे तो यह सुविधा दी जा सकती है।
अगर निजी क्षेत्र के बैंक इतने कम समय में, इतनी सुविधाओं के साथ अकाउंट खोल रहे हैं तो क्या वह सुरक्षित नही है या वह बैंक किसी दूसरे देश का नियम और कानून का पालन करते हुए ऐसा कर रहे हैं।
आधार कार्ड लिंक होने का क्या फ़ायदा।
भारत सरकार लगातार यह चिल्लाते हुए फिर रही थी की आधार को पैन कार्ड से लिंक करवाइए, बैंक अकाउंट से लिंक करवाइये और जमाने भर की चीजों से आधार को लिंक किया गया।
अब जब आधार से सारी चीज लिंक है तो क्या सरकारी बैंक के कर्मचारियों को इसका एक्सेस नहीं दिया जाता?
अगर ऐसा है तो निजी बैंकों के कर्मचारी ग्राहक को बिना समस्या दिए हुए कैसे यह काम कर ले रहे हैं।
जो फोटोकॉपी का अंबार सरकारी बैंक मांगते हैं उनके पीछे का उद्देश्य क्या होता है?
क्योंकि आधार नंबर से लेकर सारी चीजों का पता तो उसको वैसे ही चल जाएगा तो फिर इतनी दर्जनों भर की फोटो कॉपी वह भी सफेद हो, काली हो, ऊंची हो, छोटी हो, मोटी हो… उसे क्या फर्क पड़ता है?
ताज़्जुब की बात यह भी है कि अगर किसी बैंक में आपका पहले से एक खाता हो और आप दूसरा खाता खुलवाना चाहते हो तब भी आपको इस जटिल प्रक्रिया को फिर से करना पड़ेगा।
हालांकि यह हालत सिर्फ सरकारी बैंकों की नहीं है। ऐसा आपको हर सरकारी संस्था में देखने को मिल जाएगा। वहां का बैठा सरकारी कर्मचारी आपको 10 चक्कर सिर्फ इस बात में लगवा देगा कि आपकी फोटो कॉपी ठीक नहीं है, या फोटोकॉपी में कागज कम है।
जब भारत इतना डिजिटल हो गया है, इनोवेशन इतनी आगे बढ़ गई है तो आज भी क्यों एक साधारण आम आदमी को ₹2 की फोटो कॉपी और फॉर्म के अंदर मामूली सी गलतियों के चक्कर में इतना परेशान होना पड़ रहा है।
विश्वगुरू का मार्ग।
यह बात जाहिर है कि अगर इस तरह की कार्यप्रणाली सरकारी संस्थाओं की लगातार रहेगी तो आने वाले 10 साल छोड़िए, अगले 100 साल में भी भारत कभी विश्व गुरु नहीं बन पाएगा।
ऐसे तो विश्व गुरु छोड़िए, भारत एक समान से विकसित देश तक भी नहीं पहुंच पाएगा क्योंकि यह मूल समस्याएं हैं जिनको आसानी से हल किया जा सकता है उसे हल ही नहीं किया जा रहा है।
निजी क्षेत्र की ऐसी बैंकिंग सेवा का कारण है कि वह एक उद्देश्य के साथ काम करते हैं मगर सरकारी बैंकों में यह चीज आपको देखने को नहीं मिलेगी। उन्हें इस बात से कोई फर्क पड़ता ही नहीं है की कितने ग्राहक आ रहे है, कितने जा रहे हैं। ग्राहक उनसे संतुष्ट है या नहीं है। यही सरकारी बैंक बनाम निजी बैंक की जंग में निजी बैंक आगे हो जाते है।
जब ऊंचे स्तर पर इसका फर्क ज्यादा नहीं पड़ता तो नीचले कर्मचारियों के ऊपर भी कुछ खास दबाव नहीं आता।
इस वजह से यह चीजें चल भी नहीं रही है बस घसीटी जा रही है।
जरूरी कदम लेना पड़ेगा।
भारत को अगर विकासशील बनाना है तो यह बड़ा महत्वपूर्ण है कि सरकारी संस्थाओं की यह आदत और यह स्थिति को पूरी तरीके से बदला जाए और यह तभी संभव है जब इन सरकारी संस्थाओं को एक नए तरीके से रिफॉर्म किया जाए, इन सरकारी संस्थाओं के कर्मचारियों और अधिकारियों के ऊपर अकाउंटेबिलिटी सेट की जाए।
जब तक ऐसा नहीं होगा तब तक भारत का आम आदमी ऐसे ही परेशान होता रहेगा और यह चीज ऐसी ही चलती रहेगी।
अजीब है पर सत्य है कि सरकारी बैंकों में काम करने वाले इन लोगों की तनख्वाह निजी क्षेत्र के बैंक में काम करने वाले उन लोगों से कई ज्यादा होती है मगर आप काम करने का स्तर देखेंगे तो निजी क्षेत्र की सेवाएं आपको ज्यादा पसंद आएगी।
कारण सिर्फ इतना है कि निजी क्षेत्र में समय-समय पर अधिकारियों का, कर्मचारियों का ईमानदारी से कार्यप्रदर्शन का आकलन किया जाता है और सरकारी क्षेत्र के अंदर ऐसी कोई भी व्यवस्था नजर नहीं आती सब कुछ चल रहा है तो सब चला रहे हैं।
भारत की जनता ने सरकारी संस्थाओं के अंदर सिर्फ इसी कारण से रिश्वतखोरी को, काम में देरी को, लापरवाही को इन सरकारी संस्थाओं का अभिन्न अंग मान लिया है।
और यही कारण है कि सरकारी संस्थाओं के अंदर रिश्वतखोरी जैसी चीज हम भारतीयों को कोई नई घटना नहीं लगती।
बात कड़वी है पर सत्य है।
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