indian judiciary

न्यायपालिका भारतीय संविधान व्यवस्था का तीसरा स्तंभ है। सब जगह से हारने के बाद व्यक्ति के पास अंतिम अवसर न्यायपालिका के दर पर जाने का ही होता है और न्यायपालिका का फैसला अंतिम माना जाता है। भारतीय लोकतंत्र के अंदर भाषण बाजी या कहे राजनीतिक रूप से सही दिखने के लिए व्यक्ति हमेशा यह कहता है कि उसे न्यायपालिका (Indian Judiciary) पर भरोसा है और न्यायपालिका के फैसलों का वह सम्मान करता है।

मगर क्या सच में ऐसा है?

न्यायपालिका में कैसे होते हैं फ़ैसले।

भारतीय न्यायपालिका के अंदर अलग-अलग स्तर में आपको कोर्ट देखने को मिलेंगे। कोई मामला निचली अदालत में शुरू होता है उसके बाद जिला न्यायालय में जाता है, वहाँ के निर्णय के बाद हाईकोर्ट जाता हैं और उसके बाद पूरे देश का सर्वोच्च न्यायालय यानि सुप्रीम कोर्ट में पहुँच जाता है।

अगर आप निचली अदालत में हारते हैं तो आपके पास अवसर होता है कि आप ऊपर के कोर्ट पर जाकर अपनी अपील दे सकते हैं।

मगर क्या यह बात विचार करने योग्य है कि इस व्यवस्था का मुजरिम सज़ा से बचने के लिए हमेशा फ़ायदा उठाते है। उदाहरण के लिए हत्या का कोई मामला शुरू हुआ। सबसे पहले तो न्यायपालिका में इतने लूप होल हैं कि फैसला आने में कई साल लग जाते हैं।

उसके बाद निचली अदालत अपना फैसला सुनाती है उसके बाद मामला उच्च न्यायालय में जाता है, उसके बाद सर्वोच्च न्यायालय में जाता है। अगर मान लिया जाए कि इस मामले में हत्या के लिए जिसे आरोपी बनाया गया था और वह सही में दोषी था। तो जिस व्यक्ति की उसने हत्या की होगी उसके परिवार को न्याय मिलने में 15-20 साल का लंबा समय लग जायेगा। इसके साथ दोषी की आयु भी बढ़ चुकी होगी।

और अगर यह मान लिया जाए कि किसी मामले में एक मासूम को जबरन आरोपी बना दिया गया हो तो उसकी तो इस तरीके से पूरी जिंदगी बर्बाद हो जाएगी।

चिंतन का विषय तो यह भी है कि कई बार निचली अदालत में सुनाया गया फैसला, ऊपरी अदालत में जाकर बदल जाता है। यह व्यवस्था अपने आप में थोड़ी संदेहास्पद लगती है क्योंकि जब दो कोर्ट एक तरीके से, एक नियमावली में काम कर रहे हैं तो एक मामले में कोर्ट का फैसला अलग-अलग कैसे हो जाता है।

और चलो ऐसा हुआ भी तो यह दर्शाता है कि एक मामले में दो कोर्ट में से एक गलत था। अब जब न्यायिक व्यवस्था ही गलती है तो क्या आपको इसपर पूर्व विश्वास होना चाहिए। इसी के साथ अगर हाई कोर्ट ने निचली अदालत के फैसले को गलत बताते हुए फैसले को पलटा तो निश्चित ही निचले कोर्ट ने गलत फैसला सुनाया होगा तो हाई कोर्ट को निचले कोर्ट या उन न्यायाधीश पर कोई कार्यवाही करना चाहिए।

न्यायाधीश भी इंसान होते है।

खैर, एक गहन चिंतन का विषय है कि इतने सारे कोर्ट का होना, जितना भारतीयों के लिए लाभदायक नहीं है, उतना नुकसानदायक है। क्योंकि इससे अपराधियों को बड़ी सुविधा मिलती है और ज्यादातर मामले में न्याय देरी से होता है या कभी-कभी तो होता भी नही है।

न्यायपालिका के अंदर सबूत और गवाहों के आधार पर निर्णय लिए जाते हैं।

क्या यह निर्णय कोई मशीन देती है?

जी नहीं। निर्णय लेने वाला भी आप की और मेरी तरह एक साधारण मनुष्य होता है। जिसे अनुभव और कुछ परीक्षाओं को पास करने के आधार पर वहां बैठा कर न्यायाधीश बना दिया जाता है। पर क्या आपने कभी सोचा है कि कुछ परीक्षाएं और एक व्यक्ति का उसकी नौकरी से प्राप्त अनुभव पर्याप्त है कि समाज में हो रहे ल अलग-अलग मामलों पर वो फैसला सुना सके।

ऐसे सवाल और भी जायज तब हो जाते हैं जब पता चलता है कि कोर्ट में बैठने वाले जस्टिस भी रिश्वतखोरी और अपना निजी फायदा देखते हैं।

ऐसा हो भी क्यों ना क्योंकि वह भी मनुष्य हैं तो जैसी भावनाएं बाकी मनुष्यों के अंदर होती है, निश्चित ही वैसे ही भावनाएं उन न्यायाधीश और जजों के मन में भी होती होगी।

जस्टिस जसवंत वर्मा का है बड़ा उदहारण।

मार्च 2025 में दिल्ली हाई कोर्ट के जज जस्टिस जसवंत वर्मा के घर में नोटों का अंबार मिला। यह नोटों की कीमत करोड़ों रुपए में आकि गई। एक आग हादसे के कारण पुलिस और दमकल के कर्मचारियों को जसवंत वर्मा के घर मे रखे उस कैश की जानकारी लगी।

हालांकि इसके बाद जस्टिस यशवंत वर्मा और उनके साथ काम करने वाले लोगों ने सारे सबूत मिटाने की पूरी कोशिश की।

जहां दमकल के कर्मचारियों को नोट मिले थे उस जगह को पूरी तरीके से साफ कर दिया गया। वहां से जले हुए एक-एक नोट को हटा दिया गया। मगर मामला मीडिया में आ गया था इसलिए इसे दबाना आसान नही था। इसके बाद सर्वोच्च न्यायालय ने मामले की गंभीरता को देखते हुए एक समिति बनाई। समिति ने जब जांच की तो पता चला कि वहां नोट मौजूद थे। जस्टिस यशवंत वर्मा से जब पूछताछ हुई तो उन्होंने सारे आरोपो को झूठा और उनके ख़िलाफ़ साजिश बता दिया। उनके कई बयान तो ऐसे थे कि जिससे साफ पता चल रहा था कि वह झूठ बोल रहे हैं।

सबूत और बाकी चीजों के आधार पर सर्वोच्च न्यायालय ने जस्टिस यशवंत वर्मा से इस्तीफा देने को कहा मगर यशवंत वर्मा ने साफ इंकार कर दिया।

अब एक जस्टिस को हटाने की प्रक्रिया अपने आप में इतनी बड़ी है कि उसे करने में लंबा समय लगता है। मार्च में यह घटना हुई थी और उन्हें हटाने की प्रक्रिया के लिए मानसून सीजन में इस विषय पर चर्चा होगी, वोटिंग होगी और उसके आधार पर हाई कोर्ट के जस्टिस वर्मा को उनके पद से हटाया जाएगा।

यहां पर अभी सिर्फ हटाने की बात चल रही है। उनके ऊपर करवाई तो दूर-दूर तक होती दिखाई नहीं दे रही।

क्या जब कोई व्यक्ति किसी कोर्ट का जज बन जाता है तो वह साधारण मनुष्य से अलग हो जाता है?

क्या नियम कानून उसके ऊपर अलग तरीके से लगता है?

विडंबना यह है कि यह व्यक्ति जो खुद रिश्वतखोरी, झूठी गवाही और काला धन लेकर बैठा था। असल में वो न्यायपालिका के एक बहुत बड़े अंग उच्च न्यायालय का मजिस्ट्रेट था।

खैर, यह अकेले इनकी बात नहीं है। कई ऐसे मामले सामने आए है जहां पर लोगों ने साफ-साफ इल्जाम लगाया है कि न्यायाधीश ने पैसा लेकर सामने वाली पार्टी के हित में फैसला सुना दिया।

निजी रूप से अगर आप किसी वकील से बात करेंगे तो वह भी आपको बता देगा कि किस तरीके से सेटिंग होती है, कितना पैसा बटता है और किन-किन मामलों में क्या-क्या तरीके से बचाया जा सकता है। अगर कोई क्रिमिनल मामला है और व्यक्ति की जेल जाने की नौबत है तो पैसे लेकर डेट पर डेट दी जाती है।

तो जिस न्यायपालिका को हम सर्वोच्च मानते हैं जिसका फैसला हमें लगता है कि हमें सम्मान करना चाहिए, वो न्यायपालिका भी इंसान ही चलाते है जिनकी परवरिश भारत के मौजूदा माहौल में ही हुई होती है।

तो क्या आपको लगता है कि ऐसी परिस्थितियों के बावजूद भी व्यक्ति को कोर्ट के अंदर न्याय मिलता होगा?

सबको पता है मुज़रिम कौन, पर अदालत नही जानती।

राजस्थान में हुए कन्हैयालाल मर्डर केस में दो आरोपी ने खुलेआम धर्म के नाम पर एक व्यक्ति की हत्या कर दी थी। पूरा वीडियो देश के सामने आया था। हत्या इतनी निर्मम थी कि कन्हैया लाल का सर धड़ से अलग कर दिया गया था। दो आरोपियों को इसमें गिरफ्तार किया गया था मगर ताजुब की बात यह निकली कि कोर्ट ने इन दोनों को जमानत दे दी।

कन्हैयालाल का वह बेटा जिसके सर से बाप का हाथ चला गया, उसने कसम खाई थी कि वह तब तक चप्पल नहीं पहनेगा जब तक इन दोनो दोषियों को फांसी की सजा नहीं होती।

क्या आपको लगता है कि यह अदालत और यह सिस्टम उस बच्चे को न्याय दिलवा पाएगा। सोचिये जरा, किस आधार पर ऐसे दो मुजरिमों को खुला छोड़ दिया गया है जिन्होंने दिनदहाड़े खुलेआम एक व्यक्ति का गला धड़ से अलग कर उसे मौत के घाट उतार दिया था।

सब जगह न्यायधीशों की चर्चाएं है।

सिर्फ इसलिए ही नहीं अभी न्यायालय और उनके महान न्यायाधीश और भी कामों से चर्चाओं में है।

लगातार पुरुषों के विरुद्ध निर्णय सुनाने के लिए कई कोर्ट सुर्ख़ियों पर रहते है। हाल के दिनों में पुरुषों के ऊपर तलाक़ के बाद अलिमोनी देने का मामले बहुत तेजी से चल रहे हैं। यह इसलिए भी चर्चा में आ जाते हैं क्योंकि जिस तरीके का फैसला न्यायालय इन मामलों में सुनाता है वह बड़ा अजीब होता है।

जैसे शादी के बाद महिला एक-दो साल में तलाक ले लेती है, उसके बाद कोर्ट से पति को बोला जाता है कि उसे महिला को अलिमोनी देना ही होगा।

इस तरह के न जाने कितने फैसला कोर्ट ने सुनाएं हैं।

MP High Court में हुआ था मामला।

एक मामले में पति ने पत्नी को अलग होने के बाद खर्चा देने से मना कर दिया था। पति का तर्क था कि जब डीएनए टेस्ट हुआ और रिपोर्ट आयी तो पता चला कि जो बेटी जिसे वह अपनी मान रहा था वह उसकी बेटी है ही नहीं।

बायोलॉजिकली वह किसी और की बेटी थी डीएनए रिपोर्ट और बाकी सबूत तो काफी थे यह साबित करने के लिए की बेटी उसकी नहीं है मगर महिला की ओर से जो वकील लड़ रही थी उसने तर्क दिया कि महिला ने जो गलती की वह की मगर इसकी सजा बच्ची को क्यों मिले। CRPC Section 125 का हवाला देते हुए महिला वकील ने तर्क दिया की बच्ची का पूरा अधिकार है कि उसे मेंटेनेंस मिले। इस बात पर मजिस्ट्रेट ने भी हामी भारी।

अब क्या इतनी सी बात को समझने के लिए हमें बहुत बड़े ज्ञान, विज्ञान, किताबों को पढ़ना पड़ेगा। यह तो सीधी बात है कि महिला ने शादी के बाहर जाकर संबंध बनाया जो कि अपने आप में एक अपराध होना चाहिए।
मगर धन्य हो भारत की न्यायपालिका और भारत के नियम कानून जिन्होंने इस बड़े अपराध को भी अपराध माना ही नहीं है।

तो इस मामले में महिला ने शादी के बाहर जाकर अवैध संबंध रखें और उस अवैध संबंध से एक बच्चा हुआ। अब यह बच्चे की जिम्मेदारी उस व्यक्ति की होनी चाहिए जिसका यह बायोलॉजिकल बच्चा है ना कि उसकी जो उस मां का पति है मगर हमारे न्यायपालिका के कुछ कोर्ट के अनुसार यह पति की जिम्मेदारी है कि अब वह उस बच्चे की देखरेख करें जो उसका है ही नहीं।

ऐसा ही केस कुछ समय पहले आया था। जब शादी के 4 महीने बाद ही लड़की को बच्चा हो गया और कोर्ट ने उस पति को कहा कि यह अब उसी की जिम्मेदारी है।

सोच कर देखिए की क्या बीतती होगी उस पुरुष के ऊपर जिसकी पत्नी ने उसे धोखा देकर अगर संबंध बनाया, उसे एक बच्चा हुआ, अब ना चाह कर भी उस निर्दोष पति को मजबूरी में उस बच्चे को पालना पड़ेगा।

क्या यही न्याय है इन न्यायालय का?

हाल में एक वकील साहब से मुलाकात हुई। बातों-बातों में उन्होंने बताया कि उनके कोर्ट में एक मैडम जिनकी उम्र अभी काफी कम है ने मजिस्ट्रेट के रूप में पदभार संभाला। अब हालत ऐसी है कि मैडम को ज्यादा अनुभव है नहीं तो जब फैसला देने की बारी आती है और मामला थोड़ा गंभीर हो जाता है तो मैडम समझ नहीं पाती की करना क्या है। वकील साहब ने बताया कि कई बार न्यायालय के अंदर मौजूद बाबू लोग की सलाह पर मैडम फैसल सुनती हैं, तो कई बार वह अपने मजिस्ट्रेट पिता को फोन करके पूछती है कि क्या करना है। उन्होंने यह भी बताया कि कई बार कुछ मामले तो ऐसे भी होते हैं जहां मैडम को समझ नहीं आता कि तुरंत क्या करना है। तो वो डेट आगे बढ़ा देती है। फिर जाकर अपने पिता से पूछती हैं कि इसमें कैसे निर्णय दिया जाए और फिर अगली डेट में मैडम फ़ैसला सुनाती हैं।

भारत के अंदर जो कोर्ट फैसला सुनाते हैं उसे आपको मानना ही पड़ेगा। पर सवाल यही उठता है क्या कोर्ट हमेशा सही फैसला सुनाते हैं। अगर कोर्ट सही फैसला, सही समय पर सुनाता, तो हत्या करने वाले लोग सड़क पर नहीं घूमते, जुर्म करने वालों को कानून से डर लगता और रिश्वतखोरी जैसी चीज सिस्टम में नहीं होती।

मगर ऐसा लगता है कि भारत में रिश्वतखोरी, अन्याय और गैर जिम्मेदाराना रवैया यहां के सरकारी सिस्टम का एक अभिन्न अंग है।

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By Mayank Dubey

मयंक एक बहुआयामी लेखक, विचारशील कंटेंट क्रिएटर और युवा विचारक हैं एवं "मन की कलम" नामक हिंदी कविता संग्रह के प्रकाशित लेखक हैं। वे धर्म, भारतीय संस्कृति, भू-राजनीति और अध्यात्म जैसे विषयों में भी लिखते है। अपने यूट्यूब चैनल और डिजिटल माध्यमों के ज़रिए वे समय-समय पर समाज, सनातन संस्कृति और आत्मविकास से जुड़े विचार प्रस्तुत करते हैं।

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