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कन्यादान: क्या सच में बेटी का दान होता है या गोत्र का? सनातन परंपरा का वैज्ञानिक और आध्यात्मिक सत्य

“वैदिक मंत्रों के साथ पारंपरिक हिंदू कन्यादान संस्कार”

कन्यादान: एक भारतीय वैवाहिक परंपरा, जो सदियों से इस भूमि पर अपने इतिहास, संस्कार और धार्मिक मूल्यों के लिए परिवारों द्वारा निभाई जा रही है।

हालांकि जिस परंपरा को यहाँ के निवासी अपना अभिन्न अंग मानते आए है, उसी कन्यादान को आधुनिक जगत में अन्य भारतीय परंपरओं जैसे ही गलत तरीके से समझा गया और इनके विरोध में प्रचार किया गया है।

पिछले कुछ दशकों में सोशल मीडिया पर अकसर यह सुनने को मिलता आया है —
“मेरी बेटी कोई वस्तु नहीं है, जो मैं किसी को दान करूँ।”

बॉलीवुड की एक प्रसिद्ध अभिनेत्री दिया मिर्ज़ा का एक वीडियो देखने को मिला जिसमे उन्होंने कहा कि उनके नाना ने अपनी चारों बेटियों की शादी बिना कन्यादान के करवाई, यह कहते हुए कि “मेरी बेटियाँ किसी की संपत्ति नहीं हैं।”

सुनने में यह बात भावनात्मक और आधुनिक लग सकती है लेकिन सवाल यह है कि क्या सनातन धर्म में कन्यादान का अर्थ सच में बेटी का दान है?

उत्तर है बिल्कुल नहीं।

सनातन धर्म में कन्यादान का वास्तविक अर्थ

सनातन धर्म में कन्यादान का अर्थ कन्या (लड़की) का दान नहीं बल्कि उसके गोत्र का दान होता है।

गोत्र क्या होता है?

गोत्र किसी व्यक्ति की वंश परंपरा (Lineage) की पहचान है जो पिता की ओर से चलती है। Misogyny और Patriarchy जैसे शब्दों को ज़्यादा प्रयोग करने वाले लोगो का यहाँ लग सकता है कि पिता की ओर से ही क्यों पहचान होती है?

यह केवल सामाजिक व्यवस्था नहीं, बल्कि
जैविक (Biological) और वैज्ञानिक आधार पर भी टिकी हुई परंपरा है।

विज्ञान क्या कहता है? (XX–XY Chromosome Logic)

मानव शरीर में:

स्त्री के पास होते हैं → XX chromosomes और पुरुष के पास होते हैं → XY chromosomes

Y chromosome केवल पिता से पुत्र को उसके पूर्ण रूप में मिलता है। यह बिना बदले पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ता है। यही chromosome वंश, ancestry और DNA tracing में अहम भूमिका निभाता है।

महिलाओं में Y chromosome होता ही नहीं
इसलिए सनातन परंपरा में वंश की पहचान पिता की ओर से मानी जाती है।

विवाह में कन्यादान का वास्तविक संस्कार

सनातन विवाह में कन्या अपने पैतृक गोत्र का त्याग करती है और पति का गोत्र ग्रहण करती है। ताकि वह उस वंश परंपरा को आगे बढ़ाने में सहभागी बने। यही प्रक्रिया कन्यादान कहलाती है।

यहाँ बेटी को किसी को “देना” नहीं होता और न ही उसकी गरिमा कम होती है। बल्कि यह एक संस्कारिक और वैज्ञानिक हस्तांतरण है

आधुनिक भ्रांतियाँ और अधूरा ज्ञान

आज जब परंपरा को बिना समझे खारिज किया जाता है या भावनात्मक तर्कों से संस्कारों को नकारा जाता है

तो समस्या परंपरा में नहीं पर उसकी गलत व्याख्या में होती है। सनातन धर्म ने कभी स्त्री को वस्तु नहीं माना,
बल्कि उसे शक्ति, गृहलक्ष्मी और वंश की संवाहक कहा।

निष्कर्ष

कन्यादान अपमान नहीं, उत्तरदायित्व का संस्कार
कन्यादान: बेटी के सम्मान को कम नहीं करता बल्कि विवाह को धर्म, विज्ञान और संस्कृति से जोड़ता है

समस्या परंपरा नहीं, उस पर बिना ज्ञान के दिया गया निर्णय है।

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