Site icon भारत की वाणी

विलासिताओं में उलझता सुखी जीवन।

विलासिताओं में जीवन

महंगाई बढ़ गयी है!!! अगर आप मध्य वर्गीय परिवार से आते होंगे तो यह वाक्य आपने भी अनेको बार सुना होगा। मगर विडंबना यह है कि आज के समय सभी के पास जरूरत से ज़्यादा संसाधन उपलब्ध है और व्यक्ति अपनी विलासिताओं की पूर्ति में व्यस्त हो रहा है। इस बात को आसानी से देखा और समझा जा सकता है। उदहारण के लिए आपके शहर के किसी गाड़ी के शोरूम में जाइये और उनसे महीने की किसी गाड़ी की बिक्री पूछिए। आप हैरान हो जाएंगे।

हाल ही में शहर के TATA शोरूम गया तो एक से बढ़कर एक गाड़िया देखने को मिली। अब तो EV में भी बहुत से मॉडल आ गए है। सेल्स वालो से बातचीत हुई तो मैंने उत्सुकतावश कहा – “5 – 10 Tata Nexon तो हर महीने बिक जाती होंगी।”

उसने मुझे ऐसी नज़रो से देखा तो मैं समझ गया कि मेरे आंकड़े कुछ गलत है। “पिछले महीने दीवाली सीजन भी था तो 150 Nexon की सेल हुई है।” उसने जवाब दिया।

यह संख्या कंपनी के एक कार मॉडल की है जो एक छोटे शहर से बिकी है। इसके अलावा बाकि कार मॉडल की तो मैंने बात ही नही किया।

अगर देश मे महंगाई है तो कम से कम दस लाख की आने वाली कार की बिक्री में इतनी तेजी कैसे है?

अब जरा याद कीजिए हाल में जब आप अपने किसी रिश्तेदार के बच्चो के पहले जन्मदिन के आयोजन में गए थे। एक अच्छे लॉन में ज़ोरदार सजावट हुई होगी, खाने में अनेक तरह के पकवान बने होंगे, कुछ जगह तो पयरो से निकलने वाले अनारदाना की रोशनी से बच्चे का आगमन भी देखा होगा। आपको यह सब एक विवाह आयोजन से कम नही लग रहा होगा।

आज से कुछ वर्ष पहले तक ऐसे आयोजन करने से शहर के रहीस लोग भी बचते थे मगर अब हर दूसरा परिवार यह कर पा रहा है क्योंकि भारत मे जीवन जीने का तरीका बहुत बदल चुका है।

पहले संसाधनों की व्यवस्था ठीक नही थी तो व्यक्ति जरूरतों के लिए जीता था। अब समय और परिस्थितियां बदल चुकी है। अब व्यक्ति जरूरत से ज़्यादा चीज़ो को भी जरूरत की चीजो में डाल चुका है।

तो क्या महंगाई नही है?

इस बात में कोई दोहराई नही है कि देश मे महंगाई है और लगातार बढ़ भी रही है। ऐसा हो भी क्यों न जब हम जनसंख्या बिस्फोट की स्थिति से गुजर रहे हो। जब जनसंख्या बढ़ती है तो तो संसाधन कम पड़ने लगते है तो उनके दाम बढ़ते है। वही दूसरी ओर तन्खा नही बढ़ती।

मौजूदा परिपेक्ष्य भी ऐसा ही है। महंगाई तो तेज़ी से बड़ी है मगर लोगो की कमाई उस तेज़ी से नही बढ़ी।

एक अर्थशास्त्र को समझने वाले प्रोफेसर से बात हुई तो उन्होंने बताया कि सरकारी आकड़ो में महंगाई दर लगभग 6% के करीब बताई जाती है मगर असल मे
जमीनी स्तर पर इसका प्रभाव ज़्यादा होता है और यह 8% तक जा सकता है।

आप खुद ध्यान दीजिए कि पहले और अब आपकी खरीदी में कितना अंतर आ चुका है। पहले 1000 रुपये में रसोई की जरूरत का बहुत सामान आ जाता था अब 1000 रुपए में क्या ही आता है।

मन मे सवाल उठ रहा होगा कि जब महंगाई है तो ऐसे शौक कैसे और क्यों पूरे हो रहे है?

इसका उत्तर है हमारा विलासिताओं में गहरा जुड़ाव।

विलासिताओं का उदय का कारण।

यह देखना बेहद दिलचस्प है कि आज के इस दौर में हमारे पास वैसी सुविधाएं है जो पहले राजा-महाराजाओं के पास भी नहीं होती थी। मगर आज आवादी का एक बड़ा हिस्सा दुःखी है और एक हिस्सा तो डिप्रेशन जैसी समस्याओं से जूझ रहा है।

हमारा बाहरी विलासिताओं से इस तरह का जुड़ाव इस समस्या का कारण है।

सोच कर बताइए क्या आपकी पहचान में कोई सच मे सिर्फ़ इसलिए परेशान है कि उसके पास रात में सोने की जगह नही है या उसे भोजन नही मिल रहा।

नहीं, इस लेख को पढ़ने वाले व्यक्ति की पहचान में ऐसे किसी व्यक्ति का होना असंभव सा है। हर व्यक्ति कुछ बड़ा पाने की आशा में दुखी है। उसे लगता है उस बड़ी चीज़ को हासिल करने के बाद उसके मन को शांति मिल जाएगी। मगर होता इसका उल्टा है। किसी चीज की अभिलाषा करने के बाद दो बातें होती है। आप उस चीज़ को हासिल कर लेंगे या नही कर पाएंगे।

जो हासिल नही कर पाते वो उसके ख़्वाब देखकर मन ही मन परेशान होते रहते है कि “काश, पढ़ाई कर कोई अधिकारी बन गया होता।”

“मेरे पिताजी भी करोड़पति होते तो बड़ा धंधा कर लेता।”

“सरकारी नौकरी वाला लड़का या लड़की से शादी हो जाए तो सुकून मिले।”

दूसरा, अगर व्यक्ति की अभिलाषा की पूर्ती हो जाए तो उसके बाद एक नई इच्छा जन्म लेगी। इस लूप में हम कभी समझ ही नही पाते कि हमारी मुख्य जरूरते क्या है और हमारी बेबुनियाद इच्छा क्या है।

विलासिताओं के मुख्य कारण।

1. दूसरों की देख बाहरी जीवन जीना

हम जो भी करते है, जैसे भी है। इसका श्रेय उस माहौल को जाता है जहाँ हमारी परवरिश होती है। क्योंकि जैसा हम भीतर डालते है वैसे ही बन जाते है। बड़े होने पर भी इसका प्रभाव रहता है। जिन चीजो को हम देखते है, जिसके बारे में सुनते है मन उन्हें चाहने लगता है।

किसी मित्र को कुछ नया खरीदता देख खुद उसे खरीदना या किसी Vlogger का नया वीडियो देखने के बाद मन मे घूमने की इच्छा होना यह इस बात का प्रमाण है। मगर इस मनोवैज्ञानिक खेल में कुछ चीजें हम पर हावी हो जाती है। हम दुसरो की देखा सेकी अपना जीवन जीने लगते है।

सोशल मीडिया के जरिये दूसरों का जीवन देखना और भी आसान हो गया है। इसी से एक दौड़ शुरू हो जाती है कि उसने किया तो हम भी करेंगे।

2. दिखावा मतलब मन की आसक्ति।

कभी अम्बानी, अदानी या अन्य उद्योगपति परिवार को आपने देखा है कि इंस्टाग्राम पर वो पोस्ट डालते हुए अपनी नई गाड़ी दिखा रहे हो।
नहीं देखा होगा। वो किसी चीज को दिखाते भी है तो उसमें उस सामान की मार्केटिंग और ब्रांडिंग का उद्देश्य होता है न कि यह दिखाना की मैं अब यह गाड़ी या बंगला लेकर सफल हो गया हूं क्योंकि दुनिया पहले से जानती है कि वो धनवान है। उनका अपना पैसा दिखाने का तरीका कुछ और होता होगा जो उस क्लास के लोग बेहतर समझते होंगे।

भारत का एक साधारण परिवार जब कुछ महंगा खरीदता है जैसे कार तो वो उसकी फ़ोटो फेसबुक, इंस्टाग्राम जैसे प्लेटफार्म में फ़ोटो डालकर दिखाता है कि मैं भी सफल हो गया हूँ या कहे तुम लोगो से आगे निकल गया हूँ। क्योंकि फ़ोटो डालने पर किसी भी तरह की छूट कार कंपनियां अभी तक नही दे रही है।

3. विज्ञापनों का असर।

दुनिया की दिलचस्प चीजो में से एक है विज्ञापन। विज्ञापन व्यक्ति को वो लेने पर मजबूर कर देते है जिसकी उसे जरूरत नही होती। यह और भी असरदार तब हो जाते है जब इन विज्ञापनों को कोई बॉलीवुड का कलाकार करता है। फिल्मी कलाकारों को औसत बुद्धि वाले लोग बहुत ज़्यादा प्यार करते है, जब वे इन्हें किसी विज्ञापन में देखते है तो उनका झुकाव अपने आप उस सामान पर हो जाता है और कुछ लोग बड़े कलाकारों द्वारा किये गए विज्ञापनों पर ज़्यादा भरोसा करते है।

हालांकि कुछ समय पहले जब सोनी टीवी के एक कार्यक्रम में आलिया भट्ट ने कॉफ़ी का एक घुट पीते ही उसे पीने से मना कर दिया था तब लोगो को पता चला कि सक्कर से भरी बोतल फ्रूटी का विज्ञापन करने वाली आलिया सक्कर को चुने से भी बचती है।

इन फ़िल्मी फनकारों का दोहरा चरित्र विज्ञापनों में अच्छे से देखने को मिलता है। फिर चाहे वो कैडबरी, पेप्सी, गुटका या अन्य किसी चीज का विज्ञापन हो जो शरीर के लिए नुकसानदायक क्यों न हो। फ़िल्मी फ़नकार उसे करने से नही रुकते।

मगर फिर भी पढ़े लिखे लोग इन विज्ञापनों के इस खेल में फसकर वो चीजें कर देते है जो उनके लिए ठीक नही होती। व्यक्ति अपने शरीर के बारे में नही सोचता तो बाकी चीज़ो के बारे में क्या ही कहना।

आंतरिक मन से दूरी।

विलासिताओं का होना हमेशा खराब नही होता। यह मन की इच्छाएं ही होती है जो व्यक्ति को जीवन मे आगे बढ़ने के लिए उत्साहित करती है मगर यह बेहद जरूरी है कि हमे जीवन के उद्देश्य ज्ञात हो। जब उद्देश्य साफ होता है तो जीवन में भी व्यक्ति का मार्ग उन्ही चीजो से परिपूर्ण होता है जो जरूरी होती है।

आज के समय मन मे दुःख इस बात का नही है कि पेट नही भरा या सर के ऊपर छत नही है। दुःख इस बात का है कि बाकि लोग चार पहिए से चल रहे है तो मैं क्यों पैदल चलू। फिर बिना जेब की ओर देखें, आदमी इच्छाओं को पूरा करने निकल पड़ता है। सम्रद्ध परिवार तो ठीक है मगर हालत उन परिवारों की बिगड़ती है जो लोन पर चीजें उठा लेते है और किश्त भरते-भरते उनका जीवन निकल जाता है। ऐसे एक मानसिक दुख से बचने के लिए व्यक्ति असल मे मुसीबत में घिर जाता है।

दिखावटीपन एक हद तक जेब के लिए ठीक हो सकता है जब आपके पास पर्याप्त धन हो मगर मानसिक रूप से यह हमेशा आपको परेशान करेगा और हर एक दिखावे के बाद दिमाग नए दिखावे की ओर जाएगा जिससे जीवन बनावटी हो जाएगा जिसका बोझ आपके मस्तिष्क में हमेशा पड़ेगा।

यह होने का कारण है कि जीवन अब बाहरी हो चुका है। अगर भीतर मुड़कर देखेंगे तो अपने जीवन को और बेहतर बनाने, अपनी ख़राब आदतों को सुधारने और अपने मूल्यों पर काम करने पर ध्यान रहेगा और शांति भी प्राप्त होगी।

Read Also:

उधार कथा: पैसे, रिश्ते और भरोसे की अनकही दास्तान।

बचत कैसे करें: जानिए 7 आसान और असरदार तरीके।

Exit mobile version