जब-जब समाज दिशाहीन हुआ है, तब-तब भगवद्गीता (श्रीमद्भगवद्गीता) ने मनुष्य को जीवन का पथ दिखाया है। यह केवल धार्मिक ग्रंथ नहीं है, बल्कि जीवन जीने की कला का अद्भुत मार्गदर्शक है। ख़ासकर कर्म योग का महत्वपूर्ण ज्ञान जो हर दौर में उत्तम है। इससे फ़र्क़ नही पड़ता कि आप हिन्दू धर्म को मानते है या किसी दूसरे अब्राहमिक पंथ पर विश्वास करते है। अगर आप साफ मन से भगवत गीता के उपदेशों का पालन करेंगे तो निश्चित ही जीवन को दिशा मिलेगी।
चलिए जीवन को और बेहतर करने और मानव अस्तित्व में अपने उद्देश्यों को जानने के लिए देखते है गीता के उस ब्रम्हांडीय ज्ञान को जिसने करोड़ो लोगो का जीवन बदल दिया है।
गीता पूर्ण रूप से बहुत पवित्र ग्रंथ है जिसमे भगवान श्रीकृष्ण द्वारा बोला गया एक-एक शब्द एक महत्वपूर्ण संदेश है।
इन्ही संदेशो में कई शिक्षाएं एवम ज्ञान छुपा हुआ है। जिनमे से एक है कर्म योग का ज्ञान।
आज के समय, जब भागदौड़, तनाव, असुरक्षा और लालच ने इंसान को असंतुलित कर दिया है, गीता का कर्म योग हमें जीवन जीने की व्यावहारिक राह दिखाता है।
कर्म योग क्या है?
गीता में कर्म योग का ज्ञान देने के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा –
“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।”
(श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय 2, श्लोक 47)
अर्थात: तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करने में है, कर्म के फल में नहीं। इसलिए, तुम कर्म को सिर्फ फल की आकांक्षा से मत करो। यह उपदेश हमें निष्काम कर्म करने पर जोर देता है। इसका अर्थ कहता है कि परिणाम की चिंता नहीं करना चाहिए और अपने कर्तव्यों को पूरी निष्ठा से निभाने की शिक्षा देता है।
यही है कर्म योग – बिना फल की चिंता किए, अपना श्रेष्ठ कर्म करना।
जिस शिक्षा पध्दति में हम सभी ने पढ़ाई की है। जिस समाज मे हम रहते है और जैसी मौजूदा समय मे सोच है उन सभी कारणों ने हमारी सोच पर बहुत फ़र्क़ डाला है जिस वजह से गीता का यह ज्ञान निरर्थक लगता है। कोई ऐसा सोच सकता है कि “जब फल की प्राप्ति की पक्की गारंटी नही तो मैं उस कर्म को क्यों करूँ।”
या किसी के मन मे ऐसे ख़्याल आना भी संभव हैं कि “मैं तो काम ही परिणाम के लिए कर रहा हूँ अगर परिणाम को नही देखूंगा तो काम करना ही मुश्किल हो जाएगा। और जब फल की चिंता ही नही करना है तो कर्म क्यों करुँ? जो जैसा है ठीक है। बस बैठा रहता हूँ।”
सामाजिक व्यवस्था और मानव मन की असीमित आकांक्षाओ के कारण कर्म योग में पूर्ण रूप से चलना मुश्किल लग सकता है मगर जब आप कर्म योग और गीता के अन्य उपदेशों को समझ लेते है तो जो बातें निरर्थक लगती है, उनका भी अर्थ साफ और तार्किक लगता है।
जब कहा जाता है कि “कर्म करो, फल की चिंता मत करो” तो इसका अर्थ है कि जो काम तुम्हे दिया गया है, जो तुम्हारा धर्म है उसे पूर्ण विश्वास, अपनी पूरी क्षमता से करो और फल भगवान के हाथ मे छोड़ दो।
यहाँ एक महत्वपूर्ण शिक्षा मिलती है जिसे गंभीरता और शांत मन से समझने की जरूरत है। तुम्हे अपना सम्पूर्ण ध्यान सिर्फ कर्म पर लगाना है और उसके नतीजें से मोह नही करना है क्योंकि बहुत मेहनत करने के बाद भी नतीजें आ जाये यह संभव नही है।
रणभूमि में जब भगवान ने अर्जुन को यह उपदेश दिया तो उनका संदर्भ यह था कि अर्जुन को वो समझा सके कि उसे युद्ध करना ही पड़ेगा और युद्ध का परिणाम कुछ भी हो सकता है। अपितु उस समय के विद्वानों को यह बात शुरू से ज्ञात थी कि भगवान श्रीकृष्ण जिस पक्ष में है उसे कोई हरा नही सकता।
आज के संदर्भ में इसे समझना और भी जरूरी हो जाता है क्योंकि हर व्यक्ति सफल होना चाहता है। शिक्षा में, अच्छी नौकरी में, व्यापार एवं अन्य चीज़ो में। मगर किसी भी क्षेत्र में सफलता मात्र आपके किये गए कार्य पर निर्भर नही करती। सफलता कई चीजों पर निर्भर करती है जैसे परिस्थितियां, समय, आसपास के लोग और प्राप्त अवसर। इसके अलावा आपका प्रारब्ध भी इसमें एक अहम भूमिका निभाता है।
इसलिए आपने देखा होगा कि कभी-कभी आपसे कम योग्य लोग उस स्तर को छू लेते है जिसे आप सफलता समझते है पर अधिक योग्य होने के बाबजूद भी आपकी स्थिति वैसी की वैसी ही रहती है।
कर्मयोग पर स्वामी विवेकानंद के विचार।
हालांकि भगवान अर्जुन से आगे यह भी कहते है कि “जिस व्यक्ति को न विजय की खुशी है, न पराजय का दुःख, सिर्फ वही व्यक्ति सफल है।”
आज के समय में कर्म योग क्यों ज़रूरी है?
1. तनाव और अवसाद का समाधान
आज हर कोई नतीजों को लेकर चिंतित है – परीक्षा का परिणाम, नौकरी का प्रमोशन, बिज़नेस का मुनाफा। यही चिंता तनाव और अवसाद का कारण बनती है।
कर्म योग हमें सिखाता है – परिणाम की चिंता छोड़ो, कर्म पर ध्यान दो।
उदाहरण के लिए अगर छात्र परीक्षा की तैयारी पूरी ईमानदारी से करे, तो परिणाम जैसा भी हो, उसका मन शांत रहेगा और वो बेहतर ढंग से अपना ध्यान पढ़ाई में लगा पायेगा। वही अगर उसका ध्यान अगर परीक्षा के परिणाम पर अटक गया तो पढ़ाई हो ही नही पाएगी और मन चिंता, डर और अफ़सोस में ही डूबा रहेगा।
2. सफलता का वास्तविक अर्थ
आजकल सफलता का मतलब केवल पैसा और नाम मान लिया गया है। जैसे जो व्यक्ति बड़ी गाड़ी में घूमता है, जिसके घर के अंदर बहुत भव्य तरह की लाइट और डिज़ाइन होती है, जो सोना पहनता है, खर्चा करता है। ज्यादातर कम IQ वाले लोगों के लिए सफ़लता की परिभाषा यही होती है।
लेकिन गीता कहती है –
“योगः कर्मसु कौशलम्।”
अर्थ: योग है कर्म में कुशलता।
सफलता वही है जब आप अपना काम पूरी लगन, ईमानदारी और समर्पण से करते हैं। क्योंकि सफलता का सीधा कोई मतलब नही होता। यह हर व्यक्ति के लिये अलग हो सकती है मगर व्यक्ति उसी दिन सफल हो जाता है जब फल की चेष्ठा के बिना वो कर्म को पूरी क्षमता से करता है।
3. धर्म और जीवन का संतुलन
गीता केवल पूजा-पाठ की बात नहीं करती, बल्कि धर्म और जीवन के संतुलन की शिक्षा देती है। इसलिए इसे कुछ लोग जीवन का मार्गदर्शन भी कहते है और विदेश के कई वैज्ञानिक समेत अन्य लोग जो दूसरे पंथ को मानते है वो भी इसे पढ़ते है।
धर्म का अर्थ केवल धार्मिक क्रिया नहीं, बल्कि कर्तव्य है।
जैसे, पिता का धर्म – परिवार का पालन करना।
शिक्षक का धर्म – विद्यार्थियों को सही ज्ञान देना।
नागरिक का धर्म – समाज और राष्ट्र के लिए ज़िम्मेदारी निभाना।
कर्म योग यही है – अपने-अपने धर्म को पूरी निष्ठा से निभाना।
4. आध्यात्मिक शिक्षा का व्यावहारिक रूप
आज spirituality को अक्सर ध्यान, योगासन या साधना तक सीमित कर दिया गया है। इससे बुरी बात तो यह है कि योग को “योगा” बोल कर उसे कुछ लोग सिर्फ शरीरी व्यायाम समझते है। लेकिन गीता बताती है कि असली आध्यात्मिक शिक्षा यही है कि हम जीवन के हर कर्म को ईश्वरार्पण भाव से करें। इससे हर व्यक्ति जो अपना काम समाज के उद्धार की मनसा से कर रहा है वो कर्म योगी हो जाता है।
जैसे, जब किसान खेत जोतता है, जब डॉक्टर मरीज की सेवा करता है, जब सैनिक राष्ट्र की रक्षा करता है –
हो सकता है कि यह लोग भक्ति न कर पाए, मगर यह अपने कर्म के लिए पूरे और सच्चे मन से समर्पित है तो यह सभी लोग कर्म योगी है और इनके लिए तो यही है कर्म योग।
गीता का संदेश और आधुनिक जीवन
कार्यक्षेत्र में
ऑफिस में काम करने वाला व्यक्ति अगर केवल वेतन और प्रमोशन की चिंता करेगा तो तनावग्रस्त होगा। ऐसा हो भी क्यों न क्योंकि उस व्यक्ति के ऊपर जिम्मेदारियां होती है जिसे पूरा करने के लिए उसे अच्छे संसाधन और अच्छी तन्खा चाहिए मगर मात्र चिंता और तनाव से कुछ नही होगा। उल्टा व्यक्ति का जीवन ही ख़राब होगा परअगर वो अपने काम पर अच्छे से ध्यान देगा तो इससे उसे फ़ायदा होगा।
और अगर वह कर्म योग की भावना से कार्य करेगा तो उसका काम ही पूजा बन जाएगा।
रिश्तों में
पति-पत्नी, माता-पिता, दोस्त – सभी रिश्ते तब तक स्वस्थ रहेंगे जब तक हम “कर्तव्य” निभाएँ, न कि केवल “अपेक्षाएँ” करें। आपके माता-पिता अपना कर्तव्य निभाते हुए आपके लिए वो सब करते है क्योंकि वो अपना कर्तव्य जानते है और उनकी आपसे कोई ऐसी अपेक्षा नही रहती कि आप उनके शौक पूरे करे। यही भावना जब रिश्तों में व्यक्ति रखता है तो वो और बेहतर होते है।
यही है गीता का कर्म योग – बिना शर्त समर्पण।
समाज और राष्ट्र में – अगर हर नागरिक अपने कर्तव्य को कर्म योगी भाव से निभाए, तो राष्ट्र की प्रगति कोई रोक नहीं सकता।
कर्म योग के लाभ
- मानसिक शांति – परिणाम की चिंता कम होती है।
- एकाग्रता – वर्तमान पर ध्यान रहता है।
- नैतिकता – बिना स्वार्थ के कार्य करने की प्रेरणा मिलती है।
- आध्यात्मिक उन्नति – कर्म ही पूजा बन जाता है।
गीता की शिक्षा को अपनाने के व्यावहारिक तरीके
- दैनिक जीवन में अनुशासन – समय पर उठना, काम करना और कर्म पर ध्यान देना।
- फल की चिंता छोड़ना – परिणाम चाहे जो हो, कर्म श्रेष्ठ होना चाहिए।
- कर्तव्य पर ध्यान – हर भूमिका (बेटा, पति, नागरिक, प्रोफेशनल) में कर्तव्य निभाना।
- ईश्वर में समर्पण – हर कार्य को “भगवान को अर्पण” समझकर करना।
निष्कर्ष
गीता का कर्म योग केवल अध्यात्मिक शिक्षा नहीं, बल्कि जीवन जीने की व्यावहारिक कला है।
आज जब हर कोई “परिणाम” की दौड़ में है, गीता हमें याद दिलाती है – सफलता परिणाम में नहीं, बल्कि कर्म में है।
इसलिए अगर आप जीवन में शांति, संतुलन और वास्तविक सफलता चाहते हैं, तो गीता का कर्म योग अपनाएँ।
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